Thursday, August 20, 2009

'गर्दन तोड़ बुखार'

'गर्दन तोड़ बुखार'

नाईसीरिया मेनिंजाइटिडीस नामक बैक्टीरिया से उत्पन्न होने वाली बीमारी 'मेनिंजाइटिस' को बोलचाल की भाषा में 'गर्दन तोड़ बुखार' कहा जाता है। यह एक सामान्य और जानलेवा रोग है, इसलिए रोग के लक्षण प्रकट होते ही उपचार शुरू कर देना चाहिए। इसके जीवाणु मनुष्य की थूक या लार में रहते हैं। जब वह छींकता या खाँसता है तो उसके मुँह से निकलकर ये कीटाणु सामने वाले में पहुँच जाते हैं। सर्वप्रथम ये नाक और गले में प्रविष्ट होते हैं, वहाँ अपना घर बनाकर बढ़ते हैं। चार-पाँच दिनों में ही ये स्वस्थ व्यक्ति को बीमार कर देते हैं। परिणामस्वरूप रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

हर एक दशक बाद यह रोग आ धमकता है तथा चार-पाँच साल तक कायम रहता है, जिसकी चपेट में लोग आते हैं। प्रायः देखा गया कि पाँच साल से छोटी उम्र के बच्चे इसके शिकार अधिक होते हैं। बच्चों से होता हुआ यह बड़ों तक पहुँच जाता है। गंदी बस्ती या तंग जगहों पर रहने वाले लोगों को यह जल्दी अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

अगर गले में खराश, नाक बहना, तेज बुखार, गर्दन दर्द और अकड़न, उल्टियाँ होना, शरीर में छोटे-छोटे दाने निकलना आदि लक्षण देखें तो तुरंत डॉक्टर को बताना चाहिए। उपचार में बरती लापरवाही या विलंब के परिणाम अच्छे नहीं होते। इसका असर आँख और कान पर पड़ता है और वे खराब हो सकते हैं। समय पर उपचार नहीं कराने पर मृत्यु भी हो सकती है और समय पर उपचार शुरू करने से जान बच भी सकती है। आजकल मेनिंजाइटिस के उपचार के लिए अनेक दवाइयाँ उपलब्ध हैं। यदि समय पर दवाएँ ली जाएँ तो एक सप्ताह के भीतर रोगी पूर्णतः रोगमुक्त हो सकता है।

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इसके जीवाणुओं को तीन समूहों में बाँटा है- , बी तथा सी। और इन तीनों समूहों के जीवाणुओं के लिए एक टीका विकसित कर लिया है, जिसके लगाने से मेनिंजाइटिस से खतरे से दूर रहा जा सकता है।

डेंगू बुखार का उपचार

डेंगू बुखार का उपचार

सामान्य बीमारियों के उपचार आमतौर पर घर पर ही मिल जाते हैं। बीमारी न हो, इसके लिए सावधानी केवल इतनी रखनी होती है कि घर के आसपास साफ-सफाई रहे और पेयजल भी शुद्ध हो।

डेंगू एक तीव्र संक्रामक ज्वर है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से फैला हुआ है। मच्छर के काटने से होने वाला यह रोग साधारण 7 दिवसीय/मध्यकालिक उपचार युक्त अवस्था से लेकर जानलेवा रक्तस्राव के साथ मरीज को मरणासन्न अवस्था तक पहुँचा सकता है।

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इसे दंडक बुखार के नाम से भारत के पूर्व वैद्य वैज्ञानिक सुश्रुत के काल से ही पहचाना गया है।

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डेंगू बुखार एक विशिष्ट मच्छर एडीज (टाइगर मच्छर) द्वारा मुख्यतः दिन के समय काटने से वाइरस द्वारा होने वाला रोग है।

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लक्षण : जाड़ा (ठंड) लगने के साथ तेज बुखार, हाथ-पैर-जोड़ों में असहनीय दर्द एवं वेदना, भूख का ह्रास, अत्यधिक कमजोरी, वमन, अनिद्रा, अवसाद आदि।

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गंभीर रोगावस्था में रोग में रक्तस्राव भी हो सकता है, क्योंकि दंडक बुखार में शरीर में उपस्थित प्लेटलेट्स की संख्या तेजी से घट जाती है, जो रक्तस्राव कर सकती है। ऐसी स्थिति में यह रोग जीवन के लिए घातक एवं मारक हो सकता है, यदि समुचित उपचार न लिया जाए।

उपचार : औषधीय, चिकित्सक की सलाह पर रोग लक्षण तीव्र होने पर चिकित्सालय में भर्ती होकर खून की संपूर्ण जाँच।

रोकथाम : मच्छरविहीन वातावरण का निर्माण।

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निवास/ कार्यालय के आसपास रुका हुआ पानी जमा न होने दें, जहाँ इन मच्छर के अंडे पनपते हैं।

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घर के कूलर, टायर, पुराने खराब डब्बे/ बर्तन में पानी न जमा होने दें एवं उन्हें उल्टा कर रखें।

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रात्रि में मच्छरदानी का प्रयोग करें।

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संभव हो तो खिड़की पर वेलक्रो-नेटलॉन प्लास्टिक जाली लगवाएँ।

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घर के दरवाजे पर लकड़ी की मच्छर जाली का द्वार लगाएँ।

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घर और ऑफिस का 6 माह में एक बार कीटनाशक से उपचार कराएँ।

चक्रासन से बनी रहे मेरुदंड की सेहत

चक्रासन से बनी रहे मेरुदंड की सेहत

ऐसा माना है जाता है कि मेरुदंड का लचीलापन व्यक्ति को वृद्धावस्था से दूर रखता है। साधारणतः हम शरीर को दैनिक उपक्रम में जितनी भी गति देते हैं, वह आगे की ओर झुकने की क्रियाएँ मात्र होती हैं। ऐसा कोई कार्य नहीं होता जब हम पीठ को पीछे की ओर मोड़ें। ऐसे में पृष्ठवंशीय मेरुरज्जू अपनी पीछे की ओर झुकने की क्षमता खो बैठता है। पीठ में कड़ापन आ जाता है। आगे की ओर अत्यधिक झुकाव से मांसपेशीय खिंचाव के दुष्परिणाम गर्दन, कमर व पीठ दर्द के रूप में उपस्थित होते हैं, अतः वे आसन जिनमें पीठ विपरीत दिशा में गति करे, जरूरी हैं। प्राथमिक तौर पर भुजंगासन, शलभासन, धनुरासन, उष्ट्रासन करने के उपरांत 'चक्रासन' सर्वाधिक लाभदायी है, इसे पीठ के बल लेटकर किए जाने वाले आसनों की श्रृंखला में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। इसकी विधि इस प्रकार है-

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पीठ के बल लेट जाइए। घुटने मुड़े हों, एड़ियाँ नितंबों को छूती रहें। हथेलियाँ, जमीन पर घुमाकर रखें, जिससे उँगलियों का अग्रभाग कंधे की ओर रहें।

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दोनों पैरों और दोनों हाथों के मध्य आपसी अंतर कंधे के बराबर रखिए।

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धीरे-धीरे पूरे धड़ को ऊपर उठाइए। सिर को भी धीरे-धीरे इस स्थिति में लाइए कि शरीर के ऊपरी हिस्से का भार सिर के सबसे ऊपरी हिस्से पर पड़े।

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शरीर को पूरी गोलाई में ऊपर उठाइए।

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इस अभ्यास में निष्णात होने के बाद दोनों हाथों व पैरों को नजदीक लाने का प्रयत्न करें।

साधारणतः चक्रासन का अभ्यास श्वास को अंदर रोककर किया जाता है। चक्रासन के पश्चात आगे की ओर झुकने वाला आसन करना चाहिए।

चक्रासन के लाभ इस प्रकार हैं-

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यह मेरुदंड का संपूर्ण व्यायाम है।

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पीठ की मांसपेशियों तथा उदर संस्थान के लिए लाभकारी है।

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हाथों को पुष्ट व सबल बनाता है।

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चेहरे पर रक्त संचार बढ़ाकर उसे कांतिमय बनाता है।

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समस्त नाड़ियों तथा ग्रंथिस्राव को प्रभावित करता है।

उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, अस्थि दोष, नेत्र दोष, कान की व्याधि तथा पेट के आंतरिक घाव की स्थिति में चक्रासन वर्जित है। प्रारंभ में इसे योग निरीक्षक के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए।

YOGA-गर्दन को स्वस्थ रखे ब्रह्म मुद्रा

गर्दन को स्वस्थ रखे ब्रह्म मुद्रा

हमारे शरीर के कुछ अंग जिनकी ओर सामान्यतः हम ध्यान नहीं देते, शरीर को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गर्दन इन्हीं अंगों में से एक है। शरीर के सभी अंगों का संचालन मस्तिष्क से होता है और शरीर को मस्तिष्क से जोड़ने का काम गर्दन करती है, अतः गर्दन को चुस्त-दुरुस्त रखना बहुत महत्वपूर्ण है। इस हेतु हमें ब्रह्म मुद्रा का नियमित अभ्यास करना चाहिए।

ब्रह्म मुद्रा करने में बहुत आसान, परंतु अत्यंत लाभदायक है। सर्वप्रथम पद्मासन में बैठते हैं। दोनों हाथ घुटनों पर सीधे रहेंगे। गर्दन तनी हुई तथा आँखें बंद रहेंगी। हम गर्दन को धीरे-धीरे दाहिनी ओर घुमाएँ।

अधिक से अधिक दाहिनी ओर घुमाने के बाद ठुड्डी को कंधे से स्पर्श करने का प्रयास करें। अब यही क्रिया बाईं तरफ से दोहराएँ। मूल स्थिति में गर्दन लाने के बाद अब गर्दन को एक बार ऊपर की ओर ले जाएँ। इतना कि गर्दन पर खिंचाव महसूस होने लगे। फिर गर्दन नीचे की ओर ले जाएँ। ऐसा करते समय ठुड्डी कंठकूप से स्पर्श करती रहेगी। गर्दन को चार दिशाओं में मोड़ने का यह व्यायाम आप समय की उपलब्धता के अनुसार दोहरा सकते हैं, परंतु मुद्रा पूर्ण प्राप्त करने हेतु कम से कम पाँच बार तो इसे अवश्य दोहराएँ।

पद्मासन की अवस्था में बैठे-बैठे ही गर्दन को कम से कम दस बार घड़ी की सुई की दिशा में और फिर विपरीत दिशा में तेजी से घुमाने की क्रिया भी गर्दन हेतु लाभदायक होती है।

जैसा कि प्रारंभ में ही कहा गया है, इस व्यायाम से हमारे शरीर को मस्तिष्क से जोड़ने वाली सभी नसों एवं शिराओं का व्यायाम होता है। इससे गर्दन पर जमी अनावश्यक चर्बी छँट जाती है और उसमें सुडौलता आती है।

भय पर हो सकती है भारी सम्मोहन विद्या

'डर', एक ऐसा शब्द है, जो सकारण और अकारण दोनों तरह से पनप सकता है। अकारण पनपने वाले भय में कल्पनाएँ डराती हैं। दुनिया में सैकड़ों तरह के 'फोबिया' या भय व्याप्त हैं, जिन्हें चिकित्सा विज्ञान ने पहचाना और उनके दूर होने में मदद भी दी है। भय के इन प्रकारों पर सम्मोहन विद्या भी असरदार साबित हो सकती है। इनमें कुछ प्रकार के फोबिया से आइए परिचय करें।

साधारण भय और भय रोग (फोबिया) में यह अंतर है कि खतरे की स्थिति में जो शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रिया होती है वह तो भय है, जबकि वास्तविक कारण की मौजूदगी में उचित से बहुत अधिक मात्रा में भय की अनुभूति अथवा काल्पनिक कारणों से बेहद भयभीत होना भयरोग कहलाता है। दुनिया भर में अनेक प्रकार के अयथार्थ भय पाए जाते हैं, जैसे- खुले स्थान का भय (एगोरा फोबिया)- कभी-कभी कई बार हमें कुछ व्यक्ति यह कहते हुए मिल जाते हैं कि उन्हें खुले में जाने से डर लगता है। ये व्यक्ति खुले स्थान में अकेले नहीं रह सकते। इस प्रकार का डर ही एगोरा फोबिया कहलाता है।

ऊँचाई का भय (एक्रो फोबिया)
इसके अंतर्गत व्यक्ति ऊँचाई पर जाने से डरता है, उसे ऊँचाई पर घबराहट होती है, चक्कर आते हैं। उसे ऐसा लगता है कि वह ऊँचाई पर पहुँचते ही गिर जाएगा या उसे कुछ हो जाएगा। कई बार जब यह डर व्यक्ति के मन में गहराई में पहुँच जाता है तो वह बेहोश भी हो जाता है।

बंद स्थान का भय (क्लास्ट्रो फोबिया)
कुछ लोगों को बंद स्थान का भय लगता है। बंद स्थान के भय से आशय है व्यक्ति को लगता है कि अगर वह बंद कमरे में रहता है या रहेगा तो उसे घुटन होगी, घबराहट होगी। वह चाहता है कि वह हर वक्त खुले स्थान में रहे। अगर वह कमरे में भी है तो वह चाहता है कि सारे दरवाजे खिड़कियाँ खोल दें, ताकि अंदर हवा आती रहे। अगर दरवाजे खिड़कियाँ बंद हो जाएँगे तो उसे घुटन होगी, घबराहट होगी।


अँधेरे का भय (निक्टो फोबिया)
इसके अंतर्गत व्यक्ति को अँधेरे में जाने से डर लगता है। उसे लगता है कि अगर वह अँधेरे में जाएगा तो वह उस अँधेरे का सामना नहीं कर पाएगा। कई बार कुछ व्यक्तियों को अँधेरे में जाने का डर इसलिए भी लगता है, क्योंकि वे सोचते हैं कि अँधेरे में कहीं उन पर भूत-प्रेत आदि ना आ जाएँ।

गंदगी का भय (माइसो फोबिया)
इसके अंतर्गत व्यक्ति को गंदगी से भय लगता है। उसे लगता है कि अगर वह किसी व्यक्ति, वस्तु को छुएगा तो उसकी जिंदगी कीटाणु आदि उसे भी लग जाएँगे और वह बीमार हो जाएगा। वह इस भय से छुटकारा पाने के लिए कई बार स्नान करता है, अपने आपको पानी एवं साबुन से बार-बार साफ करता है। घर, कमरे, उसकी वस्तुओं की भी सफाई करता है, क्योंकि उसे ऐसा भय लगता है कि अगर उसकी वस्तुओं को किसी ने छू लिया तो उसमें कीटाणु लग जाएँगे। वह बीमार हो जाएगा।

इसके अलावा और भी सैकड़ों प्रकार के भय पाए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ये भय केवल कुछ व्यक्तियों को किसी उम्र विशेष में ही होते हैं। भय के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती। भय कई बार एक भय के खत्म होते ही दूसरा भय उसकी जगह ले लेता है। भय का निवारण सम्मोहन चिकित्सा द्वारा संभव है। सम्मोहन चिकित्सा द्वारा रोगी को अतीत में ले जाकर भय के कारणों का पता लगाकर उसका निवारण किया जाता है। एक कुशल सम्मोहन चिकित्सक एवं मनोविज्ञान के ज्ञाता द्वारा ही हमें यह चिकित्सा करवाना चाहिए। शुरुआत में ही भय केलक्षण का पता लगते ही कुशल सम्मोहन चिकित्सक से संपर्क कर भय का कारण एवं निवारण जानना चाहिए। अगर एक बार यह भय हमारे मन में गहरी पैठ जमा ले तो उससे मुक्ति पाने में मुश्किल आती है। अतः लक्षणों का ज्ञान होते ही उसका निवारण करना चाहिए।

Wednesday, August 19, 2009

लाइलाज नहीं हैं सफेद दाग

लाइलाज नहीं हैं सफेद दाग

शरीर पर सफेद दाग होना एक ऐसी समस्या है, जिससे व्यक्ति में हीन भावना घर कर जाती है। यदि ये दाग शरीर के उन हिस्सों पर हैं, जो खुले रहते हैं तो न चाहते हुए भी लोगों का ध्यान उस पर जाता है। इस वजह से सफेद दाग से ग्रस्त लोग सामाजिक मेल-मिलाप से कतराते हैं। यही नहीं, ये दाग उनकी शादी-ब्याह में भी बाधक बनते हैं। एक समय था जब इन्हें लाइलाज समझा जाता था तथा इन दागों के साथ जीना व्यक्ति की मजबूरी थी, लेकिन आज इनका इलाज संभव है। यानी इन्हें हटाकर व्यक्ति अपना खोया हुआ आत्मविश्वास प्राप्त कर सकता है।

कारण
सफेद दाग क्यों होते हैं? हमारे शरीर में व्याप्त पिगपेंट कोशिकाएँ त्वचा के स्वाभाविक रंग को बनाए रखती हैं, लेकिन जब किसी कारण से वे ठीक से कार्य नहीं करतीं, तो सफेद दाग पड़ने लगते हैं। जरूरी नहीं कि ये दाग हाथ, पैर या चेहरे पर ही हों, शरीर के किसी भीअंग पर ये दाग पड़ सकते हैं। संख्या में ये एक या अनेक भी हो सकते हैं। कुछ लोगों का संपूर्ण शरीर ही सफेद दाग से ग्रस्त हो जाता है और कहीं भी त्वचा का स्वाभाविक रंग नजर नहीं आता। हमारे शरीर में मेलनिन नाम का एक ऐसा पदार्थ पाया जाता है जो त्वचा को सामान्य रंग-रूप प्रदान करता है। जब शरीर में इस पदार्थ की कमी हो जाती है तो सफेद दाग उभरना शुरू हो जाते हैं। माना जाता है कि लीवर डिस्फंक्शन या लीवर का सही तरीके से कम नहीं करना भी इसका एक कारण है। इसके अलावा किसी पदार्थ से एलर्जी की वजह से भी सफेद दागउत्पन्ना हो सकते हैं। कुछ कारण सफेद दाग को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं जिसमें मानसिक तनाव मुख्य है। इसके अलावा फास्टफूड अथवा मिलावटी खाद्य पदार्थों के सेवन से भी इनमें विस्तार होता है।

छूत का रोग नहीं
सफेद दाग छूत का रोग नहीं है, इसलिए इससे ग्रस्त व्यक्ति के साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने आदि से संक्रमण का कोई खतरा नहीं रहता है और न ही यह कुष्ठ रोग है। यह अनुवांशिकी भी नहीं है। यानी माता या पिता को सफेद दाग होने का मतलब यह नहीं कि उनकी संतानों में भी यह होगा। त्वचा के विकार से उत्पन्ना इस रोग में कोई कष्ट नहीं होता सिवाए इसके कि शरीर भद्दा दिखता है। सफेद दाग की शुरुआत चने के दाने के आकार से होती है। फिर वह अपना आकार बढ़ा लेता है तथा धीरे-धीरे अन्य स्थानों को भी अपनी चपेट में ले लेता है।

उपचार
इसका उपचार न केवल दाग वाले स्थान का किया जाता है अपितु उन संचालित स्थानों का भी किया जाता है जहाँ इसके होने का अंदेशा रहता है। उद्देश्य यह रहता है कि बीमारी आगे न बढ़े।

सफेद दाग के उपचार में धैर्य की आवश्यकता है। यह दो सप्ताह से लेकर दो वर्ष तक चल सकता है। इसके ठीक होने की अवधि इस बात पर निर्भर करती है कि दाग संख्या में कितने हैं, कहाँ पर हैं तथा उनका आकार क्या है। अब अत्याधुनिक मशीनों से सफेद दाग का उपचार किया जाता है। इसके उपचार में जिन मशीनों और विधियों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें टॉरगेट फोटो थैरेपी, नैरो बैंड यूवीबी प्लस यूवीए पद्धति, फुल बॉडी यूबीए पद्धति, हैंड एंड फुट यूनिट तथा अरबीयम याग लेजर मुख्य हैं। बौनी एरिया के सफेद दागों को ठीक करने के लिए टॉरगेट फोटो थैरेपी इस्तेमाल की जाती है, जबकि इन दागों को नियंत्रित करने के लिए नैरो बैंड यूवीबी प्लस यूवीए पद्धति अपनाई जाती है। जलने या दुर्घटना के फलस्वरूप उत्पन्ना हुए सफेद दागों को ठीक करने के लिए अरबीयम याग लेजर मशीन का इस्तेमाल किया जाता है। हाथ तथा पैर के सफेद दाग मिटाने हेतु हैंड एंड फुट यूनिट का इस्तेमाल होता है। जबकि प्यूवा फोटो थैरेपी की ही मूल पद्धति है जिसके परिणाम बेहतर होते हैं और इलाज भी कम खर्च में होता है।

बहुपयोगी चुंबक चिकित्सा


होम्योपैथी के जनक डॉ. हैनिमेन ने चुंबक शक्ति का प्रयोग अपने रोगियों पर किया और उन्हें लाभ पहुँचाया। आज भी मॅग्नेट की तीन दवाएँ होम्योपैथी में हैं। डॉ. पैरासेल्सस का कहना है कि चुंबक में कई गुण होते हैं और उसमें से एक यह है कि वह शरीर के द्रवों को आकृष्ट करता है। इसलिए सभी प्रकार की सूजन, पीप आदि के बढ़ने और फोड़े-फुन्सी में चुंबक बहुत गुणकारी है। इंग्लैंड के डॉ. विलियम गिलबर्ट, जो महारानी एलिजाबेथ प्रथम के डॉक्टर थे, ने विद्युत और चुंबक की शक्ति का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया था। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने यह कहा कि पृथ्वी अपने आप में एक बहुत बड़ा चुंबक है। अलबर्ट राय रिसर्च लॅब, अमेरिका के निदेशक डेविस ने भी स्ट्रांग मॅग्नेट का उपयोग कर्क रोग (कैंसर) तथा ट्यूमर पर किया है। इटली में संधिवात, जोड़ों के दर्द, सूजन का इलाज चुंबक द्वारा हो रहा है। चुंबक चिकित्सा शास्त्र ने चिकित्सा जगत में नई क्रांति ला दी है।

चुंबकीय क्षेत्र का पानी पर प्रभाव : वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि चुंबकीय क्षेत्र प्रवाही के स्फटीकीकरण केंद्रों में वृद्धि करता है। चुंबकों द्वारा प्रभावित किए गए पानी के भौतिक और रासायनिक गुणधर्मों में परिवर्तन होते हैं।

पानी के कुछ परिमाण जैसे घनता, दुर्वाहीता, पृष्ठ तनाव, विद्युत वहन करने की शक्ति आदि में अनुकूल परिवर्तन होते हैं। पाचन प्रणाली, मूत्र प्रणाली आदि से संबंधित रोगों के उपचारार्थ चुंबकीय जल तैयार करने के अलावा गुलाब जल जैसे अन्य पदार्थों को भी लगभग 12 घंटे तक चुंबकों के ऊपर किसी डॉट लगी शीशी की बोतल में रखकर चुंबकित किया जा सकता है

आँख आने पर दुःखती आँखों के लिए उसे दवाई के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह विभिन्न प्रकार के तेलों जैसे नारियल का तेल, तिल का तेल, सरसों का तेल तथा होम्योपैथी चिकित्सा में प्रयुक्त कैलेण्डुला, अर्निका, सल्फर आदि मल्हमों को भी चुंबकित किया जा सकता है। इन तेलों का उपयोग बालों के लिए अथवा चर्म रोगों के लिए काम में लाया जा सकता है, जैसे चमड़ी का फट जाना, सूख जाना अथवा किसी प्रकार का घाव होना।

त्वचा, रक्तवाहिनियाँ, वसा तथा नाड़ियाँ केवल बिजली और चुंबक के चालक ही नहीं हैं, बल्कि वे चुंबकों को उपयुक्त रूप से प्रभावित भी करते हैं। अब एक लंबे समय से चुंबकित जल का प्रयोग विभिन्न रोगों के इलाज के लिए किया जा रहा है, क्योंकि इसमें उपचारक शक्तियाँ समा जाती हैं। सप्राण शरीर में 70 से लेकर 80 प्रतिशत तक पानी की मात्रा होती है, अतः चुंबक चिकित्सा विज्ञानियों द्वारा शरीर के विभिन्न कार्यों को गति देने वाले इस अद्भुत द्रव्य के चमत्कारी प्रभाव का उपयोग रोगोपचार के लिए किया गया है।

यह रोगनाशक जल पेट के अंदर समा जाता है और वहाँ से अपने रोगोपचारक गुणों के साथ रक्त नलियों में प्रविष्ट हो जाता है। और अंततः जीवित ऊतकों तक पहुँच जाता है। यह रोगनाशक जल खून साफ करने तथा अनावश्यक पदार्थों को पेशाब के साथ बाहर निकालने में भी सहायक होता है। यह रोगनाशकजल धमनियों के अंदर जमी हुई कोलेस्ट्रॉल की परत को धीरे-धीरे घोलकर बाहर निकाल देता है।

फ्रांस जैसे कई देशों में कुछ ऐसे प्राकृतिक झरने पाए जाते हैं जिनकी गठिया, मोटापा तथा पेशाब संबंधी असंख्य रोगों में उपचारक उपयोगिता पाई गई है। फ्रांस में ईवियाँ नामक स्थान है जहाँ पर लोग बड़ी संख्या में आते हैं। यहाँ कुछ झरनों का पानी पीने से थकान, मेदवृद्धि, संधिस्थलों की तकलीफों तथा मूत्र मार्ग के रोगों में लाभ होता है। यह पानी 'ईवियाँ वॉटर' के नाम से जाना जाता है। इस पानी को बोतलों में भरा जाता है और फ्रांस भर में इसका उपयोग होता है।

यह 'ईवियाँ वॉटर' कुछ और नहीं है, यह प्राकृतिक चुंबकांतित पानी ही है। भारत, रूस तथा अमेरिका में भी ऐसे झरने हैं जहाँ पर बीमारियों से मुक्त होने के लिए लोगों के झुंड उमड़ते हैं। रूस ने असंख्य रोगों, विशेष रूप से मूत्र प्रणाली से संबंधित रोगों के लिए चुंबकांतित जल का प्रयोग करने की पहल की है तथा वे इस प्रकार के जल को चमत्कारी जल कहकर पुकारते हैं। रूस तथा भारत के अनेक औषधालयों में गुर्दे की पथरी गलाने और उससे छुटकारा पाने के लिए चुंबकांतित जल का प्रयोग किया जाता है।

जब पानी को कुछ समय के लिए लौहचुंबक के संपर्क में रखा जाता है तब वह चुंबकीय क्षेत्र से प्रभावित हो जाता है और उसमें चुंबकत्व आ जाता है। ऐसा जल यदि लंबे समय तक पिया जाए तो निश्चित ही शरीर पर प्रभाव डालता है। पेट में से चुंबकांतित पानी का शोषण होकर रक्तवाहिनियों के द्वारा वह शरीर के प्रत्येक कोष तक पहुँच जाता है।

चुंबकांतित पानी के निरंतर प्रयोग से पाचन क्रिया सुधरती है, भूख खुलती है और अम्ल के स्राव का नियंत्रण होता है। इस पानी ने अनेक स्त्रियों को मासिक स्राव की कठिनाइयों से मुक्ति दिलाई है। यह पानी रक्त परिभ्रमण में भी वेग लाता है। इस कारण नसों में होने वाला जमाव कम होता है। नसें जमाव मुक्त होते ही रक्त परिभ्रमण सुधरता है और हृदय की कार्यक्षमता बढ़ती है। ज्वर, दर्द, दमा, जुकाम, खाँसी आदि में तथा विष के प्रभाव को नष्ट करने में भी यह पानी उपयोगी रहा है। पानी की भाँति दूध को भी चुंबकांतित बनाकर उसके पोषक तत्वों में वृद्धि की जा सकती है।

पानी को लौहचुंबकांतित बनाने के लिए लगभग 2000 से 3000 गॉस की शक्ति वाले बड़े लौहचुंबक चाहिए। आकार की दृष्टि से ये लौहचुंबक चपटे और वर्गाकार या आयताकार होने चाहिए। गोल चुंबक भी चल सकते हैं। पानी भरने के लिए वर्गाकार या आयताकार काँच की बोतल लें ताकि संपूर्ण लौहचुंबक बोतल के संपर्क में रह सके।

सामान्यतः 24 घंटे में चुंबकांतित पानी तैयार होता है। फिर भी यदि उसका उपयोग जल्दी करना हो तो 12 से 14 घंटों का पानी भी चल सकता है। यदि पानी को पूर्ण चुंबकीय क्षेत्र वाला बनाना हो, तो बोतल की एक ओर उत्तर ध्रुव और दूसरी ओर दक्षिण ध्रुव रहे, इस ढंग से लौहचुंबकों को जमाया जाना चाहिए। इसमें भी लौहचुंबक का उत्तरी ध्रुव उत्तर दिशा की ओर तथा दक्षिणी ध्रुव दक्षिण दिशा के सामने रहे, इस ढंग से चुंबक को रखें। सामान्य परिस्थितियों में इस प्रकार के पूर्ण चुंबकीय क्षेत्र वाले पानी का उपयोग करना ठीक रहता है।

बोतल को डॉट लगाकर रखें। लौहचुंबकांतित पानी को न तो गर्म करें और न ही फ्रिज में रखें। कुछ चिकित्सक पानी के भरे हुए गिलास या चौड़े मुँह के मर्तबान के अंदर लौहचुंबक रखते हैं, किन्तु इस तरीके से लौह चुंबकों को जंग लगने की संभावना रहती है।
चुंबकीय तरंगें काँच के आर-पार आसानी से निकल जाती हैं, इसलिए लौहचुंबक बाहर से भी पानी को पूर्णतः प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार तैयार किए गए पानी को लगभग 5-6 दिनों तक कमरे के अंदर उपयोगी रखा जा सकता है।